
बिहार में एनडीए के घटक दलों के बीच सीटों के बंटवारे पर अनिश्चितता बनी हुई है। लोजपा (रा) 30 सीटों की मांग कर रही है जबकि जदयू 2020 की स्थिति बनाए रखना चाहता है। भाजपा दुविधा में है क्योंकि वह नीतीश कुमार को नाराज नहीं करना चाहती। लोजपा का अतीत गठबंधन धर्म निभाने में चुनौतीपूर्ण रहा है जिससे भाजपा और जदयू चिंतित हैं।
पटना। पांच साल पुरानी लोजपा नहीं रही। वह दो हिस्से में बंटी-लोजपा (रा) और रालोजपा। लोजपा (रा) के अध्यक्ष चिराग पासवान पार्टी के संस्थापक स्व. राम विलास पासवान के पुत्र हैं। लोकसभा चुनाव में उनके पांच उम्मीदवार खड़े हुए। सब जीत गए।
रालोजपा के अध्यक्ष पशुपति कुमार पारस लोकसभा चुनाव से अलग रहे। बाद के दिनों में उन्होंने एनडीए से नाता भी तोड़ लिया। एनडीए ने असली मानकर लोजपा (रा) से गठबंधन किया।
लोकसभा चुनाव में सबकुछ ठीक चला। लेकिन, विधानसभा चुनाव में उसे लेकर पांच साल पुराना माहौल बन गया है। नतीजा, घटक दलों के बीच सीटों का बंटवारा नहीं हो पा रहा है।
अभी तक एनडीए के घटक दलों के बीच विधानसभा की सीटों के बंटवारे को लेकर कोई औपचारिक बातचीत नहीं शुरू हुई है।
हां, सभी दलों ने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से दावे की सीटों के बारे में बड़े दलों-खासकर भाजपा और जदयू को बता दिया है।
एक लोकसभा क्षेत्र में विधानसभा की छह सीटें होती हैं। (आरा और नालंदा अपवाद हैं। दोनों में विस की सात-सात सीटें हैं।) चिराग पांच लोकसभा सीटों पर हुई जीत के आधार पर विस की 30 सीटों की मांग कर रहे हैं।
यह संख्या वही है, जो 2020 के चुनाव के समय थीं। उस समय इतनी सीटें न मिलने पर चिराग ने अलग रास्ता अपनाया था।
एक सौ 35 सीटों पर चुनाव लड़े। सिर्फ एक सीट पर जीतने के बावजूद उन्होंने स्वयं को विजेता घोषित किया। क्योंकि जदयू 43 सीट लेकर तीसरे नम्बर पर अटक गई थी।
जदयू के आंतरिक आकलन में बुरी हार की जवाबदेही चिराग पर थोप दी गई थी। जदयू के सर्वेसर्वा इस मुश्किल पराजय को भूलने की कोशिश कर रहे हैं। भूल नहीं पा रहे हैं।
संकट क्या है?
2020 में भाजपा को 121 और जदयू को 222 सीटें मिली थी। भाजपा ने अपने कोटे से 11 सीटें उस समय की सहयोगी विकासशील इंसान पार्टी को दी थी।
जदयू कोटे से सात सीटें हिन्दुस्तानी अवाम मोर्चा को मिली थी। अभी वीआइपी एनडीए में नहीं है। उसके कोटे की 11 सीटें नए सहयोगी को दी जा सकती है।
लोजपा (रा) के अलावा उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी राष्ट्रीय लोक मोर्चा नए हिस्सेदार हैं। उधर जदयू 2020 की संख्या पर अड़ा हुआ है।
वह हिन्दुस्तानी अवाम मोर्चा को पहले की तरह सीटें देने के लिए तैयार है। लेकिन, लोजपा (रा) के लिए उसके बटुए में बहुत कुछ नहीं है।
राजनीतिक गलियारे की चर्चा के अनुसार, जदयू ने अप्रत्यक्ष रूप से भाजपा को संदेश दे दिया है कि लोजपा (रा) को सीट देने की जवाबदेही उसकी नहीं है।
जदयू के एक नेता की टिप्पणी थी-हम उनके लिए क्यों अपने लोगों की सीटें कुर्बान करें, जिनके कारण जदयू को भारी नुकसान उठाना पड़ा था।
भाजपा की जमीनी दुविधा
राज्य में भाजपा की जमीनी दुविधा यह है कि उसके कार्यकर्ता-अभी नहीं तो कभी नहीं-मोड में हैं। मतलब इसबार बिहार में भाजपा की सरकार नहीं बनी तो आने वाले कई वर्षों में सरकार बनाने की संभावना नहीं बन पाएगी।
नेता इस तथ्य को समझते हैं कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को किनारे रखकर अपनी क्या, एनडीए की सरकार बनने की भी गुंजाइश नहीं रह जाएगी।
इसलिए नेतृत्व वर्ग किसी भी हालत में नीतीश कुमार को अप्रसन्न नहीं करना चाहता है। खास कर चिराग को प्रसन्न करने के लिए भाजपा नीतीश कुमार को दुखी नहीं कर सकती है।
बीच का रास्ता क्या होगा
भाजपा और जदयू ने समय-समय संकट ऐसी घड़ी में बीच का रास्ता निकाला है। 2010 में जदयू ने भाजपा को एक सौ दो सीटें दी थी। साथ में अपने पांच उम्मीदवार भी दे दिए थे।
यही फार्मूला भाजपा ने 2020 में विकासशील इंसान पार्टी पर लागू किया। उसे 11 सीटें दी। अपने पांच उम्मीदवार भी दे दिए। पार्टी को लाभ हुआ।
विकासशील इंसान पार्टी के संस्थापक मुकेश सहनी चार विधायकों के नाम पर इतराने लगे तो भाजपा ने सहनी के विधयकों को अपनी पार्टी में मिला लिया।
यही काम नीतीश कुमार ने भी 2010-15 के बीच में किया था। भाजपा से तकरार के बाद जदयू कोटे से भाजपा के विधायक बने लोग नीतीश के साथ खड़े हो गए।
लोजपा के मामले में भी बीच का यह रास्ता अपनाया जा सकता है। इस फार्मूले पर चिराग सहमत होंगे या नहीं, इसके बारे में अभी कुछ कहना उचित नहीं होगा।
लोजपा का अतीत
गठबंधन धर्म निभाने में मूल लोजपा का यह इतिहास भाजपा और जदयू को डराता है। यह पार्टी लोकसभा और विधानसभा चुनाव अलग-अलग लड़ने से परहेज नहीं करती है।
2004 के लोकसभा चुनाव में यूपीए में लोजपा शामिल थी। लेकिन, 2005 के विधानसभा चुनाव में वह स्वतंत्र लड़ी। इसी तरह 2019 के लोकसभा में वह एनडीए की पार्टनर थी। लेकिन, 2020 के विधानसभा चुनाव वह अकेले लड़ी।
हालांकि दोनों चुनावों में उसे घाटा ही उठाना पड़ा। 2005 में उसके 29 में से अधिसंख्य विधायक एनडीए में चले गए। 2020 में जीते उसके इकलौते विधायक जदयू में शामिल हो गए।
संयोग यह भी 2005 में रामविलास पासवान केंद्र की यूपीए सरकार में मंत्री थे। चिराग अभी एनडीए सरकार में मंत्री हैं। बिहार की राजनीति में यह प्रश्न इन दिनों पूछा जाने लगा है-क्या चिराग इतिहास की पुनरावृति कर सकते हैं?
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