करवा चौथ का व्रत पति की दीर्घायु और अखंड सौभाग्य के लिए रखा जाता है। इस साल यह व्रत 20 अक्टूबर रविवार को है। चंद्रोदय का समय शाम 7 बजकर 40 मिनट है। रविवार की भोर में ही जल ग्रहण कर सौभाग्यवती स्त्रियां व्रत का संधान करेंगी। इस दिन सुहागिन महिलाएं निर्जला व्रत रखती हैं और शाम को चंद्रमा को अर्घ्य देकर व्रत खोलती हैं।
पति की दीर्घायु एवं अखंड सौभाग्य की प्राप्ति के लिए सौभाग्यवती स्त्रियां कार्तिक कृष्ण चतुर्थी रविवार 20 अक्टूबर को करक चतुर्थी यानी करवा चौथ का व्रत करेंगी। उस दिन मां गौरी संग भालचंद्र गणेशजी की अर्चना कर चंद्रोदय के समय चंद्रदर्शन कर निर्जला व्रत संपन्न करेंगी।
करवाचौथ में भी संकष्टीगणेश चतुर्थी की तरह दिन भर उपवास रखकर रात में चंद्रमा को अर्घ्य देने के उपरांत ही भोजन करने का विधान है। इस बार रविवार को चतुर्थी के चंद्रमा का उदय 7:40 बजे शाम को होगा।
काशी हिंदू विश्वविद्यालय के ज्योतिषि विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रो. विनय कुमार पांडेय ने बताया कि कार्तिक कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को संकष्टी करक चतुर्थी भी कहा जाता है। यह चतुर्थी चंद्रोदय काल व्यापिनी होती है अर्थात् चंद्रोदय के समय चतुर्थी मिलने पर इस व्रत का संधान किया जाता है।
उन्होंने बताया कि इस बार रविवार 20 अक्टूबर को दिन में 10:46 बजे तक तृतीया रहेगी। 10:47 बजे चतुर्थी लग जाएगी जो अगले दिन सोमवार को सुबह 9:00 बजे तक रहेगी। इस दशा में चंद्रोदय कालव्यापिनी चतुुर्थी रविवार की शाम को प्राप्त होगी, अत: करक चतुर्थी या करवा चौथ व्रत रविवार को ही किया जाएगा।
उन्होंने बताया कि रविवार की भोर में ही जल ग्रहण कर सौभाग्यवती स्त्रियां व्रत का संधान करेंगी। शाम 7:40 बजे चंद्रोदय पश्चात चंद्रदर्शन कर पारण करेंगी। सायंकाल से ही व्रती मां गौरी, भगवान भालचंद्र गणेश की पूजा-अर्चना कर सौभाग्यवती वीरावती की कथा सुनती हैं। चंद्रमा के उदित होने पर चलनी से चंद्रदर्शन कर पति के हाथों जल ग्रहण कर व्रत तोड़ती हैं।
प्रो. पांडेय ने बताया कि महाभारत में वनवास काल में अर्जुन संकल्पबद्ध हो इंद्रकील पर्वत पर तप करने चले गए थे, उधर उनकी कुशलता व संकल्प सिद्धि को लेकर चिंतित द्रौपदी ने भगवान श्रीकृष्ण से इसका उपाय पूछा। भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें कार्तिक कृष्ण चतुर्थी को निर्जला व्रत रखकर भगवान गणेश की आराधना का सुझाव दिया।
बताया कि भगवान गणेश सभी संकटों को काट देते हैं। इस पर द्रौपदी यह व्रत कर अर्जुन की संकल्पसिद्धि में सहायक बनीं। तभी से पति की कुशलता, दीर्घायु व सफलता के लिए विवाहित स्त्रियां यह व्रत रखती हैं। कालांतर में वीरावती की घटना से प्रेरित हो व्रतियों ने चलनी से चंद्रदर्शन की परंपरा अपना ली।
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